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सृजन कभी बिना मूल्य नहीं होता, हर निर्माण अपना मूल्य मांगता है ,चाहे वो कोई युग हो, कोई धर्म हो, कोई देश हो या कोई समाज हो.कुछ पाना है तो कुछ खोना ही होगा. कल को भरपेट खाने के लिए आज भूखे पेट सोना पड़े तो सो जाओ यही प्रकृति का नियम है.ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कहते बल्कि पग –पग पर प्रकृति भी हमें यही सन्देश देती रहती है.कुछ मिटता है तो कुछ नया बनता है,शायद कल कल कर बहते झरने और पिघलते हुए ग्लेशियर हमसे कुछ ऐसा ही कहना चाहते है ,प्रस्फुटित होता बीज भी यही सन्देश हमसे कहता है की “लो मै मिट रहा हूँ पर ये नया तरु तुम्हे दे रहा हूँ” शायद सृजन का कुछ ऐसा ही रास्ता बनाया है ईश्वर ने तभी तो गीता में ‘श्री कृष्ण जी’ कहते है “हे मनुष्य अपना कर्म कर फल की चिंता मत कर वो तो अवश्य ही मिलेगा .
सृजन की खातिर……………………………………………
डॉ वी.के.पाल
नूतन सृजन अगर करना है ,तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
ये दुनिया की रीति पुरानी ,मूल्य चुकाना पड़ता है
निर्मल निर्झर बनने को,हिम को गल जाना पड़ता है
एक कुटुंब उजड़ जाता है ,एक कुटुंब बनाने में
बेटी जार-जार रोती है ,प्रियतम के घर जाने में
नव रचना लिखने की खातिर, कोरा कागज़ लगता है
अगर पुराना लिखा-पढ़ा तो, उसको मिटना पड़ता है
नूतन सृजन अगर करना है , तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
प्रसव वेदना सह कर माँ,शिशु की किलकारी पाती है
और रसीले फल की खातिर ,एक कली मर जाती है
मधु की एक बूंद पाने को,श्रम की कोई थाह नहीं है
देश विहंसता रहे, वीरो को ,मरने की परवाह नहीं है
कन्धा लहूलुहान हो जाये ,‘बेटे बस तुम पढ़ लेना’
मेरी हस्ती मिट जाने दे ,पर तेरा ख्वाब सजाना है
नूतन सृजन अगर करना है ,तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
धरती माँ का चीर कलेजा ,रक्त-पसीना बहा-बहा
कृषक करे श्रम,जीवन दे दे,उगते है कुछ अन्न यहाँ
जाने कितने जीवन मिट गए ,जाने कितने हाथ कटे
तब मिल पाता है दुनिया को एक अनोखा ‘ताज’ यहाँ
भट्ठी में तप कुंदन चमके ,जब खरी कसौटी कसता है
अनगढ़ पत्थर बिना तराशे, क्या ‘कोहिनूर’ बन सकता है?
‘सिधू’ एक बनाने में, कितने ‘गोपी’ मिट जाते है
एक ‘मलाला’ बनने में, कितने बालक कट जाते है
नूतन सृजन अगर करना है , तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
कोई ईट जब गहन नीवं में,सब सुख तज खप जाती हैं
कोई ईट ,तब कंगूरे पर ,गौरव शीर्ष शिखा का पाती है
अरे सिंधू तू मत इतरा,अपनी असीम जल थाती को
बूंद बूंद ने आहुति दी ,तब पाया अनंत जलराशि को
अरब-खरब तब ही बनते है,जब जुड़ते है ‘शून्य’ अनेक
लाखो अणु जब जल जाते है,तब बनती है किरण विशेष
कितने राते जाग-जाग कर ,विद्या अर्जन करता हैं
तब “कलाम” बन कोई बालक ,दीप समान चमकता हैं
नूतन सृजन अगर करना है , तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
मंथन करते करते कोई, वैज्ञानिक चुक जाता है
दिशा बदल दे मानवता का,अविष्कार कर पता है
राज्य महल में “यशोधरा” ,पिया मिलन की त्रास सहे
युगों-युगों तक कीर्ति बिखरे,’बौद्ध’ धर्म का ज्ञान मिले
नदियां अपनी धारा रोकें ,बंधन को स्वीकार करें
एक जलाशय निर्मित होता, खेतो में नव प्राण भरे
जब ‘दधीचि’ सासों को भींच,अपनी अस्थि दे देता है
तब परास्त दानवता होती,देवत्व अवतरित होता है
नूतन सृजन अगर करना है , तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
ये दुनिया की रीति पुरानी ,मूल्य चुकाना पड़ता है
निर्मल निर्झर बनने को,हिम को गल जाना पड़ता है
रत्न चाहिये,दानव संग मिल,सागर को मथना होगा
गंगा नीर चाहिए तो , ‘भागीरथ’ सा तपना होगा
आज देशहित कुछ तजने की ,तेरी बारी आई है
झंझा सहने ,विष पीने की तेरी पारी आई है
‘नील कंठ’ बन,गरल अधर रख,बस दो घूँट लगाना है
‘महादेव’ बन अब “भारत” को सदियों तक चमकाना है
नूतन सृजन अगर करना है , तो प्राचीन ढहाना है
नव अंकुर बगिया में फूटे, बीजों को मिट जाना है
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